भरोसे का वज़न करता समाज

इन दिनों भरोसा तराजू पर है। उसका सौदा-सुलह हो रहा है। तराजू पर रखकर उसका वजन नापा जा रहा है। भरोस कम है या ज्यादा, इस पर विमर्श चल रहा है। यह सच है कि तराजू का काम है तौलना और उसके पलड़े पर जो भी रखोगे, वह तौल कर बता देगा लेकिन तराजू के पलड़े पर रखी चीज का मोल क्या होगा, यह आपको तय करना है। अब सवाल यह है कि क्या सभी चीजों को तराजू पर तौलने के लिए रखा जा सकता है? क्या भावनाओं का कोई मोल होता है? क्या आप मन की बात को तराजू पर तौल कर बता सकते हैं? शायद नहीं। इनका ना तो कोई मोल होता है और ना ही कोई तौल। तराजू पर रखने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है। भावना, विचार और इससे आगे विश्वास। यह सभी चीजें शाश्वत है। इनका कोई मोल नहीं है। कोई तोल नहीं है। इन सबका अस्तित्व है या नहीं है। यह कम या ज्यादा भी नहीं हो सकता है। भावना किसी के प्रति आपकी अच्छी या बुरी हो सकती है लेकिन कम या ज्यादा कैसे होगी? विचार आपके सकरात्मक हो सकते हैं किन्तु कम या ज्यादा वाले विचार कैसे होंगे। ऐसा ही एक शाश्चत शब्द है भरोसा। आप किसी व्यक्ति पर आपको भरोसा होगा तो पूर्ण होगा और नहीं होगा तो शून्य होगा। किसी पर आप भरोसा करते भी नहीं हैं और कहते हैं कि उस पर मेरा भरोसा कम हो गया? जब भरोसा ही नहीं रहा तो कम या ज्यादा का प्रश्न कहां से उत्पन्न होता है? भरोसा या तो होगा या नहीं होगा और होगा तो पूरा होगा और नहीं होगा तो शून्य के स्तर पर होगा। इन दिनों समाज में पत्रकारिता की विश्वसनीयता चर्चा में है। आमतौर पर पत्रकारिता अथवा मीडिया के लिए टिप्पणी की जाती है कि अब उसकी विश्वसनीयता घट गई है। इस वाक्य को संजीदा होकर समझने की कोशिश करेंगे तो आपको समझ आएगा कि मीडिया पर अविश्वास करते हुए भी कहा जा रहा है कि भरोसा घटा है, समाप्त नहीं हुआ है। दरअसल, मीडिया पर समाज का विश्वास कभी खत्म नहीं होता है क्योंकि समाज के चौथे स्तंभ की मान्यता प्राप्त इस संस्था की पहली जिम्मेदारी सामाजिक सरोकार की होती है। सत्ता, शासन और अदालत तक आम आदमी की तकलीफ को ले जाना और अवगत कराना मीडिया की जवाबदारी है। जब मीडिया अपनी जवाबदारी से पीछे नहीं हटता है तो समाज का उस पर भरोसा घट नहीं सकता है। हां, मीडिया पर समाज का भरोसा समाप्त हो सकता है। शून्य के स्तर पर जा सकता है, वह तब जब मीडिया अपनी जवाबदारी को भूल जाए। मीडिया पर समाज के भरोसे को किसी तराजू में नहीं तौल सकते हैं क्योंकि भरोसे का कोई मोल नहीं है। भरोसा अनमोल होता है। इस समय हम सोशल मीडिया के भरोसे बेपनाह अपने विचार जाहिर कर रहे हैं। अभी सोशल मीडिया के एक साथी ने अपनी बात शेयर की कि लेखकों को पीआर करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे एकाग्रता भंग होती है। इस बात में बहुत ज्यादा दम नहीं है क्योंकि जब आप लेखक होते हैं तो आपको सिर्फ वही सूझता है, वही दिखता है और वही लिखते हैं जो आपके मन को विचलित करती हैं। आपका लिखा किसी के भरोसे को बढ़ाता होगा तो किसी के भरोसे को तोड़ता भी होगा लेकिन यह अलग बात है। इस महादेश में अपनी बात पहुंचाने के लिए पीआर करना जरूरी है और इससे बचना मुश्किल सा है। हालांकि इसका समाधान भी है कि आप अपनी सहूलियत और जरूरत के मुताबिक पीआर कर सकते हैं। यहां तो पीआर को तराजू पर तौला जा सकता है और कीमत के स्थान पर इस बात का आंकलन कर सकते हैं कि कब और कितना पीआर कैसे और कितना लाभदायी होगा लेकिन लेखन में जो बात होगी, वह भरोसे की होगी। इसे आप तराजू पर नहीं तौल सकते हैं। अक्सर साथियों से बात होती है तब वह भी भरोसे के शाश्वत सत्य की अनदेखी कर जाते हैं। मीडिया के बड़े-बड़े मंचों पर दिग्गज पत्रकार भी इस बात को भूल जाते हैं कि भरोस शाश्वत सत्य है और जो शाश्वत है, उसे पाया जा सकता है या खोया जा सकता है। खोकर अपने पास नहीं रखा जा सकता और ना ही पाकर उसे खोने का स्वांग किया जा सकता है। भरोसा टूटने का अर्थ रिश्तों पर पूर्णविराम लगना है और भरोसा पाने का अर्थ रिश्तों और गहराई को नापना है। भावना, विचार और भरोसा अमूर्त हैं। इसका कोई मोल नहीं। यह एक तरह से पानी की तरह है जो रहेगा आपके साथ और टूटा तो भांप बनकर आसमान में विलीन हो जाएगा। यकीन मानिए भरोसा बने रहने के लिए या टूटने के लिए। आपका चाल, चरित्र और व्यवहार पर निर्भर करता है कि आप भरोसे के लायक हैं या नहीं लेकिन आप पर कम या ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है। भरोसा अपने आपमें पूर्ण है, उसे तराजू में तौलने की जरूरत नहीं है। *लेखक मनोज कुमार, स्वतंत्र टिप्पणीकार और शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं। इस लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत है।

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