कब समझेंगे हम – हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा

“हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा” “हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा”… ये पंक्तियां प्रसिद्ध साहित्यकार अल्लामा इक़बाल की उर्दू में लिखी गई ख़्यातनाम गज़ल “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” की है जो आजादी के समर के दौरान लिखी गई थी। इक़बाल तत्कालीन भारत के लाहौर में रहते थे, पेशे से सरकारी कॉलेज में व्याख्याता थे। इक़बाल की मजहबी भाषा अरबी थी, हालांकि उर्दू भाषा फ़ारसी लिपि के साथ तब तक आकार ले चुकी थी। लाहौर तत्कालीन पंजाब प्रांत का हिस्सा था, जहां की मुख्य भाषा पंजाबी थी, लेकिन इक़बाल साहब ने हिन्दोस्तां की भाषा के लिए हिंदी की वकालत आखिर क्यों की ?….इसे समझने की जरूरत है। आज के दौर में तो बहुत ही जरूरी है। बात चाहे देश के अत्याधुनिक शहर कह जाने वाले बंगलुरू की हो, जहां के मेट्रो स्टेशनों में कन्नड़, अंग्रेजी के बाद हिंदी की देवनागरी लिपि में लिखे स्टेशनों के नाम को ढक देने का प्रकरण हो या फिर केन्द्रीय सरकार के परिपत्र के जारी होते ही तमिलनाडु में बवाल हो जाने का हो, जिसमें हिंदी के उपयोग करने की बात कही गई थी। इन सभी प्रकरणों में एक साझी बात उभरकर सामने आती है कि हिंदी का विरोध सामाजिक-सांस्कृतिक कम राजनैतिक ज्यादा है। निश्चित तौर पर हिंदी देश की अघोषित राष्ट्र भाषा है। हालांकि भारत राष्ट्र कम, देश की शक्ल में ज्यादा नज़र आता है। बहुभाषी देश है। भाषाओं की अपनी विरासत है। किसी एक भाषा की छाती पर चढ़कर किसी भी भाषा को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर देश के ज्यादातर राज्यों की स्थापना भाषाई आधार पर हुई है। निश्चित रूप से हर राज्य को अपने यहां प्रचलित बोलियों-भाषाओं की गौरवशाली विरासत को संरक्षित रखने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए। हिंदी किसी भी भाषा की विरोधी नहीं है। लेकिन देश की भाषा के लिए हिंदी के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। आपको अमृतसर में मलयालम समझने वाले, रामेश्वरम में गुजराती वहीं गुजरात में तेलुगु समझने वालों को ढ़ूंढ़ने में मशक्कत करनी पड़ सकती है।

आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदी भाषा को छोड़कर सभी भाषाओं की स्थिति तकरीबन एक जैसी ही है लेकिन, हिंदी बोलने, समझने तथा लिखने में सक्षम लोग देश के किसी भी कोने में मिल जायेंगे। हिंदी भाषा तकरीबन कुछ हिंदी भाषी राज्यों के लोगों को छोड़कर देश के तकरीबन 20 राज्यों के लिए उनकी द्वितीयक भाषा है। हिंदी को यदि उसकी बोलियों से अलग कर दिया जाये तो कम ही होंगे जिनकी मातृभाषा हिंदी होगी। वहीं अगर इस बात की गणना की जाए कि देश में हिंदी कितने जानते या समझतें है तो, शायद ही देश की कोई भाषा हिंदी के आस-पास भी फटके; अंग्रेजी तो दूर-दूर नहीं। अब अगर किसी से पूछा जाए की देश की भाषा क्या होनी चाहिए तो इसके लिए अंतर्मन और अपने पुराने अनुभवों को टटोलना होगा। सभवत: उत्तर सभी का एक ही होगा। हिंदी हमेशा से ही राजनीति का शिकार होती रही है। वर्तमान में कई भाषा-बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखने के लिए लोग हो-हल्ला मचा रहें हैं। ज्ञात हो कि क्षेत्रफल और जनसंख्या के मामले में विशाल होने के साथ ही देश में तकरीबन 1652 विकसित एवं समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों को बोलने वाले हर व्यक्ति–समुदाय के जीवन में ये महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। हर व्यक्ति अपनी बोली को भाषा के रूप में देखता है। उन्हें लगता है कि उनकी बोली में वे सारे गुण हैं जो किसी भी सबल भाषा में होने चाहिए। लेकिन देश का हर शख़्स जानता है कि देश की आत्मा हिंदी में बसती है। वर्तमान में भोजपुरी बुद्धिजीवी वर्ग भोजपुरी को इस सूची में शामिल करने के लिए प्रयास कर रहा है। निश्चित तौर पर इसे उस सूची का हिस्सा बना देना चाहिए। वर्तमान में इस अनुसूची में 22 भाषाएं सम्मिलित हैं और हिंदी भी इसी अनुसूची का हिस्सा है।, हालांकि शुरूआत में केवल 14 भाषाएं इसमें शामिल की गई थीं। निश्चित रूप में देश में प्रचलित बोलियों और भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए। बोलियों-भाषाओं के संरक्षण से भला किसे तकलीफ होगी ? आज भी कई देशों की भाषाएं लिपि के नाम पर केवल चित्रमयी है, बावजूद इसके वे विश्व में अत्यंत ही सम्मानित भाषाएं मानी जाती हैं । वहीं 70 करोड़ से अधिक हिंदी भाषी होने के बाद भी हिंदी भाषा को वह सम्मान प्राप्त नहीं है जिसकी वह हकदार है। हालांकि, वर्तमान में हिंदी फिल्मों तथा अप्रवासी भारतीयों ने हिंदी को विश्व के कोने –कोने में पहुंचा दिया है। भारत विश्व का सबसे बड़ा उभरता बाजार है। ऐसे में व्यापार से जुड़ी हर छोटी-मोटी कंपनियों में हिंदी के उपयोग जरूरी बन गया है। हालांकि हिंदीतर भाषाओं के माध्यम से भी वे अपनी पैठ भारतीय समाज में पुख्ता करना चाहते हैं। जिसमें शायद ही किसी को कोई गुरेज हो। हिंदी भाषा की पहचान आज वैश्विक हो चली है। आज स्थिति यह है की भारतीय हिंदी फिल्मों के दर्शक पूरे विश्व में मिल जायेंगे।

प्रमाणित तथ्य है कि विश्व में वही देश विकसित है जिसने अपनी भाषा को सहेजा है, संवारा है तथा उसे अपनाया है। रूस, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं लेकिन शायद ही आपने रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे तथा चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपनी देश की राष्ट्रीय भाषा से इतर अन्य भाषा में सार्वजनिक रूप से बोलते हुए सुना हो। शायद नहीं ? इजरायल को कौन भूल सकता है। क्षेत्रफल में हरियाणा जितना इजरायल है पर मजाल है कि कोई दुश्मन देश उसकी तरफ आंखे तरेरे। इजरायल के निर्माण के जितना योगदान यहूदी मजहब का है संभवत: उतना ही उनकी अपनी हिब्रू भाषा का । हिब्रू एक विलुप्तप्राय भाषा थी जिसे, आज लोग दुनिया की पुरानी जीवित भाषाओं में से एक मानते हैं। इजरायल एक मृतप्राय भाषा को जीवित कर देता है तो क्या हम हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषा को जीवंत नहीं रख रखते ? बात समझ में आती है कि भारत की परिस्थितियां इन देशों से अलग है। भारत बहुभाषीय देश है। भारत में समृद्ध भाषाओं की एक लंबी सूची है। देश की मुख्य भाषाएं किसी भी अन्य देशज भाषा से कमतर नहीं है। देश में कई भाषाएं को क्लासिकल भाषा का दर्जा दिया गया है। इनका साहित्य पुरातन एवम् वैभवशाली है। बावजूद इसके इनका क्षेत्र सीमित है। अंचल विशेष में बोली, लिखी तथा पढ़ी जाती हैं। जबकि हिंदी का विस्तार राज्यों की सीमाओं से परे अंतर्राज्यीय से होते हुए अंतर्राष्ट्रीय हो चली है।

सब जानते हैं कि हिंदी के बिना देश का उत्थान संभव नहीं है। समझ से परे है कि सहिष्णुता जिस देश के अंत: करण में बसती हो, वहां के अहिंदी भाषियों में हिंदी के प्रति इतनी असहिष्णुता क्यों है? तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के लोगों को देवनागरी लिपि में लिखा ‘तमिलनाडु’ और ‘पश्चिम बंगाल’ भी गुस्से के भाव से भर देता है। वैसे हिंदी भाषियों ने हिंदी की कम दुर्गति नहीं की है। हिंदी भाषी व्यक्ति जानबूझकर अंग्रेजी का चोला ओढ़ता है ताकि समाज उसे विद्वान समझे। यहां पर अंग्रेजी को उसकी विरोधी भाषा की दृष्टि से देखने की जरूरत नहीं है। लेकिन समाज में कई ऐसे हैं जो हिंदी आते हुए भी हिन्दी भाषी व्यक्ति से जान-बूझकर अंग्रेजी में बात करते हैं।अब इसे क्या कहें..आप ही तय कर लें। आज हिंदी के प्रति लोगों में सोच बदलने की जरूरत है। राजभाषा नियम-1976 के अनुसार सूचना बोर्ड में त्रिभाषा का सिद्धांत बेहतर है, जिसमें हिंदी के साथ ही सहायक राजभाषा अंग्रेजी सहित स्थानीय भाषा को न केवल स्थान मिलता है बल्कि दोनों भाषाओं से उपर उसे तरज़ीह मिलती है। मैनें कितने ही स्टेशन देखें है जहां उर्दू में स्टेशन का नाम लिखा होता है। दो चार के अलावा शायद ही कोई वहां हो जो इसे लिखना और लिखे हुए को पढ़ना जानता हो पर, इसे शायद ही किसी ने पोता हो। भ्रम है कि हिंदी या किसी हिंदीतर भाषा का आपस में संघर्ष है। जबकि ऐसा नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिंदी का साहित्य हिंदीतर भाषाओं के साहित्य जितना ही समृद्घ है। लेकिन हिंदी देश की प्रतिनिधि भाषा होने के साथ ही अत्यंत सबल और वैज्ञानिक भाषा भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद गुजराती भाषी महात्मा गांधी तथा तमिल भाषी सी. राजगोपालाचारी तथा सीमांत गांधी के नाम से प्रसिद्ध खान अब्दुल गफ्फार खाँ हिंदी को देश की भाषा बनाने की वकालत नहीं करते। बावजूद इसके आज भी हिंदी को लेकर राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता नहीं बन पायी है। वर्तमान में हिंदी के विस्तार, बाजार में धमक और भाषाई सबलता के आधार पर हिंदी देश की अघोषित रूप से देश की भाषा है। लेकिन देश में हिंदी को लेकर इतना राजनीतिक कुचक्र फैला है जिसे आधार बनाकर लोग सच को भी झूठा साबित करने में तुले हुए हैं। सही मायनों में हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं या फिर अंग्रेजी से किसी तरह की कोई चुनौती नहीं है, सभी भाषाओं की अपनी महत्ता है। हिंदी के सबसे बड़े दुश्मन कोई विदेशी नहीं बल्कि अंग्रेजी मानसिकता वाले भारतीय ही हैं। कहा जाता है कि दुनिया को ठीक तरह से जानने तथा लोगों से संबंध बनाने के लिए रशियन, चाइनीज, जापानी, स्पेनिश, जर्मन, अंग्रेजी, अरबी, फ्रांसीसी, हिंदी जैसी भाषाओं की जानकारी होना आवश्यक है। वहीं भारत को जानना हो तो हिंदी भाषा ही पर्याप्त है। इक़बाल साहब को 1905 में ये बात समझ आ गई थी, तब से लेकर अब तक न जाने कितना पानी गंगा में बह गया, पूरी शताब्दी गुज़र गई लेकिन हम नहीं समझे। ईश्वर जाने इस देश और इसके लोगों को यह बात समझने में ना जाने कितना वक्त और लगेगा। अनिल कुमार पाण्डेय (लेखक कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से संबद्ध राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पंचकूला में पत्रकारिता एव् जनसंचार विषय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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