Parashurama Jayanti : परशुराम: एक न्यायपूर्त योद्धा

parashurama jayanti 2020 : परशुराम: एक न्यायपूर्त योद्धा : नितेश भार्गव

निरंकुश अत्याचार के विरुद्ध ब्राह्मणों के खड़े होने की परंपरा परशुराम से भी पहले की है। वह आततायी कोई भी हो, किसी वर्ण का, किसी प्रांत, कुल या परंपरा का हो। ब्राह्मणों ने, भृगुवंशियों ने बिना किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात के अत्याचार के विरुद्ध शास्त्र और शस्त्र दोनों से तत्कालीन समाज की, पीड़ितों की, वंचित, उपेक्षितों की रक्षा की, उनके अधिकारों के लिए स्वयं सामने आए। उनके सम्मान के लिए स्वयं बलिदान हुए। महर्षि परशुराम ने तो पीड़ितों के हितार्थ अपने पिता को भी खोया। वंचितों और शोषितों के अधिकार के लिए बिना किसी स्वार्थ के लड़ने वाली परंपरा में महर्षि परशुराम शीर्षस्थ हैं, सर्वप्रथम हैं। वे इस पूरी परंपरा के प्रस्थान बिंदु हैं। सामाजिक मर्यादा और आदर्शों के आदि संरक्षक भृगुवंशी ही रहे। ब्राह्मण महज शिक्षा दीक्षा या राज पुरोहिती तक ही सीमित नहीं रहा उसने विषम स्थिति में हर भूमिका समर्थ ढंग से निभाई है। वह अन्याय के विरुद्ध हर स्थिति में खड़ा है। परशुराम आज इसी संदेश के मूर्त प्रतिमान के रूप में हमारे समाज में स्वीकृत हैं, पूज्य हैं, विद्यमान हैं। शोषण, अत्याचार, अनाचार की समाप्ति और शुचितापूर्ण सामाजिक मानदंडों की स्थापना का महत कार्य आज महर्षि परशुराम के आदर्शों और उनकी सी निष्पक्षता निर्भीकता को आत्मसात किये बिना संभव नहीं। 

        चाहे पुरुरवा के दम्भ को तोड़ने और उसके अत्याचार निवारण का प्रसंग हो, नहुष की इंद्राणी के प्रति कामसक्ति और इसी प्रवाह में अगस्त्य मुनि को पदाघात करने का प्रसंग हो, ययाति द्वारा कामग्रस्त हो अपने पुत्र पुरु की आयु प्राप्त करने का अनैतिक घटनाक्रम हो या अपनी दानशीलता के दम्भ को बनाये रखने के लिए अपनी पुत्री माधवी को वस्तुवत गालव और आगे अन्यान्य को सौंपने का प्रसंग हो। इन सब सामाजिक अनाचारों का परशुराम ने विरोध और परिमार्जन किया। परस्त्री के प्रति कामासक्ति से फैलता व्यभिचार हो या स्त्री को वस्तुवत प्रयुक्त कर उसके मान उसकी गरिमा का अवमूल्यन करना हो। हर अन्याय से भृगुवंशी लड़े और दोषियों को दंडित किया। इस प्रकार समाज में नारी को वस्तुवत और भोग की सामग्री मानने के अनाचार का तत्समय पटाक्षेप भी किया। स्त्री शक्ति के उत्थान में ये प्रसंग अनवरत प्रेरणा स्रोत हैं।

        महाभारत के दशावतार प्रसंग में श्री विष्णु के छठे और भागवत पुराण के बाईस अवतारों में सोलहवें अवतार श्री परशुराम हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु के इस वंशज ने प्रतिभा, प्रतिष्ठा और पराक्रम में भृगुवंश को अपने शीर्ष पर पहुंचाया। पौराणिक प्रसंगों में देवगुरु के रूप में रूढ़ होने के पूर्व ऋग्वैदिक बृहस्पति के गुणों का साम्य परशुराम में दिखाई देता है। वही मेधा, वही अग्नि के समान प्रचंड तेज और पराक्रम। पितामह भृगु द्वारा प्रदत्त नाम 'राम' और शिव द्वारा प्रदत्त दिव्य 'परशु' के संयोजन से उनका नाम परशुराम प्रसिद्ध हुआ। श्रीमद्भागवत के अनुसार सात चिरजीवियों में एक परशुराम भी हैं। परशुराम के इस पराक्रम यज्ञ की समिधा पूर्व से ही तैयार थी। उनके जन्म के पूर्व ही कार्त्तवीर्य सहस्रार्जुन के अत्याचारों का बोलबाला सम्पूर्ण आर्यावर्त्त में व्याप्त था।

        आर्यावर्त्त में दिग्विजय के बाद कार्त्तवीर्य निरंकुश, अत्याचारी और अमर्यादित हो गया। साधुओं और निर्बलों पर अत्याचार करने लगा। एक बार वह कान्यकुब्ज में निवासरत महर्षि जमदग्नि के आश्रम की कामधेनु सुरभि को बलात ले जाने लगा तब महर्षि ने उसे परास्त किया। बाद में अवसर पाकर छल से कार्त्तवीर्य ने महर्षि जमदग्नि की हत्या की। इसी के बाद से परशुराम ने प्रण लिया कि मर्यादा की प्रतिष्ठा के क्रम में प्रजा, ऋषियों और नारी के प्रति अत्याचारी, अनाचारी और विलासी राजाओं का समूल नाश करूँगा। परशुराम ने कार्त्तवीर्य के विरुद्ध एक बड़े राष्ट्रव्यापी युद्ध के लिए सैन्य संगठन और अन्य राजाओं से संधिया की। सैन्य शक्ति में वैश्य और शूद्र भी शामिल किये गए। अब तक उपेक्षित दास और दस्यु भी सैनिक बन इस पवित्र यज्ञ में कूद पड़े। वस्तुतः यह परशुराम के नेतृत्व में कुछ राजाओं और समस्त शोषितों को एकत्र कर लड़ा गया युद्ध था। इस भीषण युद्ध में परशुराम ने कार्त्तवीर्य को परास्त किया साथ ही उसका साथ दे रहे तत्कालीन इक्कीस प्रमुख राजा भी मारे गए। यहीं से परशुराम द्वारा इक्कीस बार क्षत्रियों के अंत की बात चल निकली। इस पराजय के बाद महारानी महामाया ने आकर सभी स्त्रियों तथा बच्चों को मार देने तथा सारी संपत्ति अपने आधिपत्य में लेने का अनुरोध किया। तब परशुराम ने कहा कि मैंने यह युद्ध प्रजा, सम्पति, दासियों, विलास या राज्य के लोभ से नहीं किया। यह तो अत्याचार और निरंकुशता के विरुद्ध युद्ध था। उन्होंने सभी रानियों को उनके पतियों के शव सौंप दिए और अवसाद पूर्वक प्राण त्यागने को प्रकृति और मानव विरोधी होने के कारण निषिद्ध किया तथा महारानी महामाया को प्रजा के अधिकतम कल्याण के लिए अपने पुत्रों से अपनी व्यवस्था अनुसार न्यायपूर्ण राज्य संचालन हेतु निर्देशित किया।

        आज परशुराम की क्रोधी और क्षत्रियहंता छवि लोक में प्रचलित है। यह उनके व्यक्तित्व का अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण प्रस्तुतिकरण हैं। अत्याचारियों के नाश से अधिक उन्होंने नारी के सम्मान, स्वाभिमान और उसके सामर्थ्य स्थापना का उपक्रम किया। आततायियों का दमन उन्होंने वर्ण और वंश देखकर नहीं किया। कार्त्तवीर्य से युद्ध भी इसी अमर्यादा के विरुद्ध ही था। यहां तक कि युद्धोपरांत भी उन्होंने शत्रु पक्ष की नारियों को ससम्मान राज्य करने, शोकवश मृत्यु के भाव को त्यागने और पुनः विवाह करने की शिक्षा दी। उन्होंने लोपामुद्रा, अनुसूया और अपने शिष्य अकृतवण के साथ मिलकर नारी जागृति के गंभीर प्रयास किये। उत्तरपूर्व में लोहित (अरुणाचल प्रदेश) से दक्षिण में महेंद्र गिरि (केरल) तक उनका यह प्रभाव और संदेश आज तक व्याप्त है। नारी अधिकारों की रक्षा के क्रम में ही अंबा के अनुरोध पर उसके उचित अधिकार के हित में उन्होंने भीष्म से भी भीषण युद्ध किया। आज महर्षि परशुराम के इस पक्ष को विचारित, प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है।

        अनाचार, अत्याचार, शोषण के विरुध्द संघर्ष की ब्राह्मणों की परंपरा महर्षि और्व से आरंभ हो परशुराम में अपने शीर्ष पर पहुँचती और आज भी आरोह अवरोह के साथ विद्यमान है। कार्त्तवीर्य सहस्रार्जुन से युध्द में बड़ी संख्या में विधवा हुईं महिलाओं को राज्यहित में जीवित रहने और रुचि अनुसार विवाह करने को परशुराम ने ही प्रोत्साहित किया। इतनी अधिक संख्या में विवाह हेतु प्रोत्साहित करने और इस प्रकार उनकी प्राण रक्षा करने की स्मृति में ही महर्षि परशुराम के प्रकटोत्सव को भारतीय परंपरा में विवाह का सर्वोत्तम मुहूर्त माना जाता है। भारतीय त्योहारों में छिपे हुए संदेशों में यह एक महत्वपूर्ण संदेश है। जो लोग विधवा विवाह, नारी शिक्षा, महिला अधिकारों की प्रेरणा और सती प्रथा की समाप्ति का श्रेय अंग्रेजी शासन और पश्चिमी विचारों को देते नहीं अघाते उन्हें एक बार महर्षि परशुराम को पढ़ और समझ लेना चाहिये।

        प्रत्येक भारतीय पर्व या तो निरंतर कर्मरत रहने की प्रेरणा का प्रयोजन है या अनाचार अत्याचार के निवारण का उत्सव या पीड़ित शोषितों के उद्धार के पुनीत स्मरण का यज्ञ है। महर्षियों को पर्व पर पूजा जाना तो महज प्रतीकात्मक है। इन महान उद्देश्यों के संचालक स्थापक महर्षि निश्चय ही प्रतिदिन स्मरण और आमरण अनुसरण किये जाने योग्य हैं। आज भी महर्षि परशुराम इसी उद्देश्य से महेंद्र पर्वत पर तपस्यारत हैं कि कलयुग में जब अनाचार, अत्याचार, अमर्यादा अपने चरम पर होगी तब उपयुक्त पात्र को इसके निर्मूलन के लिए शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा दे सकें। आज इस पर्व पर महर्षि परशुराम के कार्यों, उनके गुणों का स्मरण कर हम निष्पक्ष और न्यायपूर्ण भारत के भविष्य का सूत्रपात कर सकते हैं।

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